हमारे भीतर एक बहुत ही काबिल चिकित्सक रहता है जो कभी फीस नहीं लेता, कभी छुट्टी नहीं लेता और कभी रिटायर नहीं होता। वह चौबीसों घंटे खामोश ड्यूटी पर रहता है, बिना नेम-प्लेट लगाए।
उंगली कटे तो खून देखने से पहले ही प्लेटलेट्स ने मोर्चा संभाल लिया होता है।
मैक्रोफेज कचरा उठा रहे होते हैं, स्टेम सेल नई त्वचा की नींव डाल रही होती हैं। आप डॉक्टर को फोन उठाते हैं, तब तक घाव ने आधा रास्ता खुद तय कर लिया होता है।
वह बुखार वायरस को भून रहा होता है।
नाक बह रही होती है तो आप रूमाल भिगोते हैं, वह वायरस को बाहर फेंक रहा होता है।
आप दवा लेकर बुखार दबाते हैं तो वह चुपके से कहता है, “मैं तो अपना काम कर रहा था।”
यह डॉक्टर बोलता नहीं, सिर्फ संकेत भेजता है।
थकान = सो जाओ
पेट भरा = अब मत खाओ
धूप अच्छी लग रही = दस मिनट खड़े हो जाओ
हमने उसकी भाषा भुला दी है, इसलिए उसे जोर से बोलना पड़ता है – पथरी बनाकर, अल्सर बनाकर, हार्ट-अटैक बनाकर।
और हाँ, कैंसर के बारे में भी सच यही है।
हर दिन हमारे शरीर में हजारों असामान्य कोशिकाएँ बनती हैं।
इम्यून सिस्टम की निगरानी टीमें (NK cells, T-cells) उन्हें पहचानकर तुरंत मार गिराती हैं।
वैज्ञानिक इसे “immune surveillance” (रोग प्रतिरक्षा निगरानी) कहते हैं।
दुनिया भर में दर्जनों प्रमाणित मामले हैं जहाँ मेलानोमा (त्वचा का काला कैंसर), न्यूरोब्लास्टोमा (तंत्रिकातंत्र का कैंसर) या किडनी का कैंसर बिना किसी इलाज के अपने आप गायब हो गया – इसे spontaneous remission (स्वतः रोग निवृत्ति) कहते हैं।
यह बहुत कम होता है, पर होता जरूर है।
मतलब, शरीर का अपना कैंसर-हंटर विभाग दिन-रात काम पर रहता है।
जब हम उसे साफ हवा, अच्छा भोजन, गहरी नींद और तनाव-मुक्त मन देते हैं, तो यह विभाग और तेजी से काम करता है।
इसका मतलब यह नहीं कि कैंसर में दवा-कीमो-सर्जरी की जरूरत नहीं;
बल्कि यह कि शरीर खुद भी लड़ रहा होता है, और हमारा सहयोग मिले तो वह और बेहतर लड़ता है।
सबसे शानदार अस्पताल हमारे भीतर ही है।
उसके पास सबसे सटीक लैब है, सबसे सटीक दवा है, सटीक टाइमिंग है।
उसे सिर्फ चार चीजें चाहिए:
साफ हवा, साफ पानी, साफ भोजन, और साफ सोच (आचार-विचार)।
और सबसे जरूरी – उसकी बात सुनने की आदत।
जो शरीर को सुनता है, उसे बाहर की दवा कम लगती है।
जो नहीं सुनता, उसे बाहर की दवा भी कम नहीं पड़ती।
इसलिए शरीर की सुनो, वह तुम्हारी सुनेगा।
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