शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

प्रेम की झील या ज्ञान की ?

मैं तो ये सोचकर तेरे पास आया था , 
           कि  तू एक प्रेम की झील है--
पर अभी एक कदम ही तो बढ़ा था तेरी तरफ ,
           कि  चाँदनी अभी बिखरी ही थी - यकायक ,
मुझे खुद पे यकीन न रहा ,
  इतना नूर था - तेरे आसपास -- तेरे करीब ,
जैसे कोहेनूर हो कोई ख़ास --
कि जैसे ताज - महल बदल रहा हो तेजो - महालय में ,
एक  मंदिर की तरह ,
और मैं हूँ यंहा खड़ा -- इस निस्तब्ध मंदिर में ,
एक ऐसे भक्त की तरह मौन ,
जिसे ज्ञान की देवी ने दर्शन देकर ,
कर दिया हो स्तब्ध ------------
तू तो कहती थी -- मैं प्रेम की एक झील हूँ ,
फिर ये ज्ञान ---?
ओह ---आज समझ पाया --
क्यों कहते थे भगवान ( ओशो )
कि भीतर ज्ञान  का दिया जले ,
तो बाहर प्रकट होगा ही 
प्रेम का नूर -
तभी तो तुम हो न कोहेनूर ,
या  प्रेम की झील या ज्ञान की झील ?
                                         17 अगस्त 13 शनिवार  

बुधवार, 14 अगस्त 2013

संस्कृत कविता

हे देवी ! सौन्दर्य अधिष्ठात्री ,
   मम ह्रदयं त्वं , मम ह्रदयं त्वं,
त्वं संग वार्तालाप करोमि ,
  जीवन प्रफ्फुलित , जीवन प्रफ्फुलित,
त्वं संग भ्रमणं गच्छामि ,  
  ह्रदयं उल्लसित, ह्रदयं उल्लसित
 

शनिवार, 10 अगस्त 2013

तुम्हारे मेरे दरमियाँ,

नहीं , मुझे बर्दाश्त नही कोई भी - तुम्हारे मेरे दरमियाँ ,-- कोई भी ,
    तभी तो भटकता फिर रहा हूँ मैं -- तुम्हारे  और मेरे दरमियाँ-
कभी तुम तक - कभी  खुद तक ,
     पर क्या करूं - क्या कहूँ तुमसे ,
तुम्ही तो ले आती हो इन सब को - तुम्हारे मेरे दरमियाँ,
तुम्हारे साथ ये न जाने कौन कौन आ जाते हैं - तुम्हारे मेरे दरमियाँ,
     पर तुम भी क्या करो ,तुम कहती तो हो खुद ब खुद ,
 तुम प्रेम की एक झील हो या प्रेम का एक झरना ,
         तो ये सब तो होता रहेगा ,
  और और और भी आते रहेंगे,
 न जाने कौन कौन - तुम्हारे मेरे दरमियाँ,
 चलो फिर मैं भी एक प्रेम का सागर बन जाता हूँ ,
जंहा आकर सब समा जाएँ ,
 खो दें अपना अस्तित्व -- तुम्हारे मेरे दरमियाँ,
                                     ११  अगस्त २०१३