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लोकतंत्र क़ी सफलता लोगों की भागीदारी से तय होती है --

२६ जनवरी १९५० को भारत में हमारे पूर्वजों ने संवैधानिक घोषणा की कि भारत एक लोकतान्त्रिक गणतंत्र होगा । १९५० से २०१० इन साठ सालों के गुजर जाने के बाद - वर्ष २०११ - १५ अगस्त आजादी की ६४ वी सालगिरह के ठीक एक दिन बाद १६ अगस्त २०११ ------------------------ यकायक ---- ६४ साल से इस देश कि व्यवस्था में नासूर बन चुके भ्रष्टाचार के फोड़े में किसी ने एक नश्तर लगा दिया और जब वह नश्तर चला - देश के प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष में बैठे बड़े बड़े ललुओं ने उसकी धार को अपने सीने पर चलता महसूस किया । और इस नश्तर के चलने के बाद इस देश में - रक्त की धार व मवाद की जगह फूट निकली एक - अग्निवर्षा , जिसमे इस देश के बच्चे से लेकर बूढ़े तक को उस आग से नहला दिया - जिस आग में नहाने के बाद सिर्फ ये सुर ही निकलते हैं --- वन्दे मातरम् ------- इन्कलाब जिंदाबाद --- भारत माता की जय हो --------------------- --------------------------------- आखिर हुआ क्या -...

कौन ये जा रहा मौन ------

कौन ये जा रहा मौन -------------- हो बेटा - ओ बैरी - हा जीजी इन तमाम करुण क्रन्दनो के बीच असम्प्रकत - वीतराग सा शुभ्र वसन मीत --- कौन ये जा रहा मौन , मृत्यु के महानुष्ठान में दे रहा हवि -- अचेत , हर पल हर घड़ी मानवता कि सेवा में संलग्न , या माया मोह में निमग्न , पा रहा स्वयं को निर्लिप्त योगी सा - या कर्मनिष्ठ --- कौन ये जा रहा मौन ----------------------- ताकता हिकारत से -- चहुँ और , निपट गंवार - दरिद्र - मूर्ख - जाहिल - पापी - रुग्ण - इन नरक के हरकारों के बीच , नीम की जीर्ण पीत झरी चटकती पत्तियों पर । अभिशप्त रुग्णालय के खंडहरनुमा देवालय की निस्तब्ध प्रस्तर प्रतिमा सा --- कौन ये जा रहा मौन ------------------------------------ कल तक थी जिसमें आग भस्म कर देने को - समस्त धरा की ज़रा ----- अतीत के किसी ज्वालामुखी की राख के ढेर सा शांत -- सम्प्रति धीर प्रशान्त ---- स्थितिप्रज्ञा सा -------- कौन ये जा रहा मौन

ये इन्तहा थी

मैं था - मेरा जूनून था - और था - इश्के रूहानी , तू कंहाँ था - कंहाँ तेरी फ़िक्र - कंहाँ थी तेरी कहानी , फिर तब - क्यों तेरी तब्बसुम - एक आगोश में बदली , बस सिर्फ़ तू था -- तेरी फिकर- और बस तेरी कहानी , मुस्कराहटें - और सरगोश्याँ - खामोशियाँ ये तो पहचानी , न पहचानी तो मेरी अक्ल- फरके मज़ाजो इश्के रूहानी , न तू था - न मैं था - था तो बस एक वजूद ---------- ये इन्तहा थी - या इश्क था - या थी बस एक हैरानी .

मेरी शायरी

कभी तुम मेरी मोहब्बत को आजमा के देखो - कभी तुम मेरे पास आ के देखो - कभी मुझसे दूर जा के देखो - यूं तो देखा होगा तुमने ज़माने में इन्क्लाबों को - कभी मेरी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिला के देखो- तलाशते हैं दरख्त भी साये को धूप में- कभी सीने में तुम मेरे अपना चेहरा छिपा देखो - चलो आओ बाहर निकलो अपने दायरों से - उठाकर अपने हाथो को ------ मुद्दतों जिसे चाहा - वो मंजर शहर का देखो