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संदेश

उसके साए से सट के चलते हैं . हम भला , टालने से टलते हैं ? मैं कन्हा उस तरह से रंग बदलता हूँ -- जिस तरह से वो रंग बदलते हैं . तुम ही हो जान हर महफ़िल की हम कन्हा घर से अब निकलते हैं . तुम बनो रंग - तुम बनो सुगंध --- हम तो आंसुओ में ढलते हैं . है ये कितना दूर का सफ़र यारों लडखडाते पांव कंहा संभलते हैं . हो रहा हूँ जिस तरह मैं बर्बाद देखने वाले तो इससे भी जलते हैं
या रब मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता एक ही शख्स था इस जहाँ में क्या ? ताकता रहता हूँ उस मकां की तरफ कोई नहीं रहता है उस मकाँ में क्या ? मेरी हर बात बेअसर ही रही कोई नुक्स है मेरे बयाँ में क्या ? बोलते नहीं क्यों तुम मुझसे जख्म ही दोगे उपहार में क्या ? क्या कहूँ - क्या लिखूँ - क्या करूँ कोई हरकत नहीं आती तेरी जुबाँ पे क्या?

जिस मोड़ पे मुझे छोड़ के

जिस मोड़ पे मुझे छोड़ के -- तुम खो गए इस राह पे मैं खड़ा रहा ठगा हुआ - ठिठका हुआ - सहमा हुआ हैरां था , परेशां था , वीरान सी इस राह पे - अब क्या करूं -- जाऊं किधर - इस राह पर , सवाल थे जवाब थे - मेरे पास थे - थे नहीं बस तुम मगर - जाऊं किधर ? अब पूछूँ किधर ? इस राह पर , तू अदीब था या था राहबर या था बेवफा - ये तुझे पता न मुझे खबर .- समझूँ सजा या दूँ - तुझे सदा ? रहूँ बेखबर या रखूं सबर -- ? कब तलक इस राह पे मैं दूँ सदा --- यूँ ही बेअसर ?

सर !

सर   ! सर   ! सर   ! मुझे लगता है डर , आपसे नही , अपने आप से,   लगता है डर , क्यूँ कि मैं खोज रही हूँ , जो  उत्तर , वो  छिपा है , कंही किसी कोने में , मेरे ह्रदय के --- पर , मैं ढूंढ़ रही हूँ उसे , और प्रयोग कर रही हूँ ,  अपना सर !

हेलो जिन्दगी

               तू मुझे कितना हैरां कर देती है -- अभी ही तो तू आई थी ,                    एक खुशनुमा हवा के झोंके की तरह - और भर दिया था तूने मुझे -                मेरी सांसो को कर दिया था ओतप्रोत - प्राणों से - बाहर से भीतर - भीतर से बाहर,                   ऊर्जावान  हो उठा था मै ---                फिर यकायक ये क्या हुआ -- रोज की तरह आज सुबह -                   जब मैंने तुझे कहा --  हेलो जिन्दगी --               तो मेरे शब्दों में प्राण ही नहीं थे , खुद को ही बुरा लगा था -               कि ऐसे निष्प्राण - निस्पंद शब्दों से कैसे जिन्दगी को हेलो कहा जा सकता है .          ...

प्रेम की झील या ज्ञान की ?

मैं तो ये सोचकर तेरे पास आया था ,             कि  तू एक प्रेम की झील है-- पर अभी एक कदम ही तो बढ़ा था तेरी तरफ ,            कि  चाँदनी अभी बिखरी ही थी - यकायक , मुझे खुद पे यकीन न रहा ,   इतना नूर था - तेरे आसपास -- तेरे करीब , जैसे कोहेनूर हो कोई ख़ास -- कि जैसे ताज - महल बदल रहा हो तेजो - महालय में , एक  मंदिर की तरह , और मैं हूँ यंहा खड़ा -- इस निस्तब्ध मंदिर में , एक ऐसे भक्त की तरह मौन , जिसे ज्ञान की देवी ने दर्शन देकर , कर दिया हो स्तब्ध ------------ तू तो कहती थी -- मैं प्रेम की एक झील हूँ , फिर ये ज्ञान ---? ओह ---आज समझ पाया -- क्यों कहते थे भगवान ( ओशो ) कि भीतर ज्ञान  का दिया जले , तो बाहर प्रकट होगा ही  प्रेम का नूर - तभी तो तुम हो न कोहेनूर , या  प्रेम की झील या ज्ञान की झील ?                                          17 अगस्त 13 श...

संस्कृत कविता

हे देवी ! सौन्दर्य अधिष्ठात्री ,    मम ह्रदयं त्वं , मम ह्रदयं त्वं, त्वं संग वार्तालाप करोमि ,   जीवन प्रफ्फुलित , जीवन प्रफ्फुलित, त्वं संग भ्रमणं गच्छामि ,     ह्रदयं उल्लसित, ह्रदयं उल्लसित