सोमवार, 9 सितंबर 2013

हेलो जिन्दगी


               तू मुझे कितना हैरां कर देती है -- अभी ही तो तू आई थी ,
                   एक खुशनुमा हवा के झोंके की तरह - और भर दिया था तूने मुझे -
               मेरी सांसो को कर दिया था ओतप्रोत - प्राणों से - बाहर से भीतर - भीतर से बाहर,
                  ऊर्जावान  हो उठा था मै ---
               फिर यकायक ये क्या हुआ -- रोज की तरह आज सुबह - 
                 जब मैंने तुझे कहा --  हेलो जिन्दगी --
              तो मेरे शब्दों में प्राण ही नहीं थे , खुद को ही बुरा लगा था -
              कि ऐसे निष्प्राण - निस्पंद शब्दों से कैसे जिन्दगी को हेलो कहा जा सकता है . 
                 और मैंने स्वयं को ही अपने सामने गुनहगार की तरह खड़ा पाया था -
              कमाल है - जज भी मैं ही था - 
                  पता नहीं कंहा से मेरे भीतर एक जज जिन्दा हो  उठा था -
             सामने था मैं - खुद एक गुनहगार - और मेरे जज़्बात --
                 जो दुनिया के किसी सविंधान की पहुँच से बाहर थे ,
             बहरहाल अदालत जारी थी - और ये वो अदालत नहीं - 
            जंहा  तारीख पर तारीख मिलती रहती हो और ,
                      और फैसला रोज मुल्तवी हो जाता हो ,
           आज और अभी ही निर्णय  होना था --
              अचानक ही जज अपनी कुर्सी से उठा -
              और कटघरे में आकर गुनहगार के अन्दर समा गया
               और फिर बाहर आकर जब वो मुस्करा कर अपनी कुर्सी पर बोला ,
                 कि किसी भी गुनाह की तह तक जाने के लिये ये जरुरी है ,
              उठो मुजरिम अब तुम्हारी बारी है , आओ मुझमे समा जाओ ,
              इससे पहले कि कोई निर्णय हो -- तुम्हारे लिये ये जान लेना जरुरी है कि 
                न्याय की इस प्रक्रिया में मेरे भीतर क्या चल रहा है ,
               और तब घटित हुआ एक और आश्चर्य --
                   जैसे ही मैं उस जज के भीतर से बाहर आया --
                वंहा कुछ भी तो नहीं था - न जज -- न मुजरिम -- न अदालत --
                 सब हो गए थे विलुप्त -- फैसला हो चुका था ---
                    मात्र उस शून्य में --
                    मैं खड़ा था स्तब्ध --------------   मुक्त  -----. 
              

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