एक खुशनुमा हवा के झोंके की तरह - और भर दिया था तूने मुझे -
मेरी सांसो को कर दिया था ओतप्रोत - प्राणों से - बाहर से भीतर - भीतर से बाहर,
ऊर्जावान हो उठा था मै ---
फिर यकायक ये क्या हुआ -- रोज की तरह आज सुबह -
जब मैंने तुझे कहा -- हेलो जिन्दगी --
तो मेरे शब्दों में प्राण ही नहीं थे , खुद को ही बुरा लगा था -
कि ऐसे निष्प्राण - निस्पंद शब्दों से कैसे जिन्दगी को हेलो कहा जा सकता है .
और मैंने स्वयं को ही अपने सामने गुनहगार की तरह खड़ा पाया था -
कमाल है - जज भी मैं ही था -
पता नहीं कंहा से मेरे भीतर एक जज जिन्दा हो उठा था -
सामने था मैं - खुद एक गुनहगार - और मेरे जज़्बात --
जो दुनिया के किसी सविंधान की पहुँच से बाहर थे ,
बहरहाल अदालत जारी थी - और ये वो अदालत नहीं -
जंहा तारीख पर तारीख मिलती रहती हो और ,
और फैसला रोज मुल्तवी हो जाता हो ,
आज और अभी ही निर्णय होना था --
अचानक ही जज अपनी कुर्सी से उठा -
और कटघरे में आकर गुनहगार के अन्दर समा गया
और फिर बाहर आकर जब वो मुस्करा कर अपनी कुर्सी पर बोला ,
कि किसी भी गुनाह की तह तक जाने के लिये ये जरुरी है ,
उठो मुजरिम अब तुम्हारी बारी है , आओ मुझमे समा जाओ ,
इससे पहले कि कोई निर्णय हो -- तुम्हारे लिये ये जान लेना जरुरी है कि
न्याय की इस प्रक्रिया में मेरे भीतर क्या चल रहा है ,
और तब घटित हुआ एक और आश्चर्य --
जैसे ही मैं उस जज के भीतर से बाहर आया --
वंहा कुछ भी तो नहीं था - न जज -- न मुजरिम -- न अदालत --
सब हो गए थे विलुप्त -- फैसला हो चुका था ---
मात्र उस शून्य में --
मैं खड़ा था स्तब्ध -------------- मुक्त -----.
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