रविवार, 21 जनवरी 2018

तुम

उस दिन हम  जब अचानक आमने सामने थे ,
तुम्हारी खामोश निगाहों में
एक खामोश शिकवा था न मेरे लिए ?
कितनी खूबी से तुमने उसे छिपा लिया
अपनी पलकों में ।
और यूँ मिली मुझसे
जैसे कभी कोई शिकवा न था ।
शिकवा न था कोई
तो फिर वो दूरियां क्यों थी ?
मिलते हैं फिर कभी ,
ये कह के तुम चल तो दीं ।
मगर कब तक ,
और फिर एक दिन
 जब सच में तुम को जाना था
तब आयीं थी तुम फिर
मेरे पास कुछ पलों के लिये ।
और मैं आज भी उन पलों के साथ जी रहा हूँ,
 जैसे मुझे पूरी पृथ्वी का साम्राज्य मिल गया हो ।

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