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प्रेम की झील या ज्ञान की ?

मैं तो ये सोचकर तेरे पास आया था ,             कि  तू एक प्रेम की झील है-- पर अभी एक कदम ही तो बढ़ा था तेरी तरफ ,            कि  चाँदनी अभी बिखरी ही थी - यकायक , मुझे खुद पे यकीन न रहा ,   इतना नूर था - तेरे आसपास -- तेरे करीब , जैसे कोहेनूर हो कोई ख़ास -- कि जैसे ताज - महल बदल रहा हो तेजो - महालय में , एक  मंदिर की तरह , और मैं हूँ यंहा खड़ा -- इस निस्तब्ध मंदिर में , एक ऐसे भक्त की तरह मौन , जिसे ज्ञान की देवी ने दर्शन देकर , कर दिया हो स्तब्ध ------------ तू तो कहती थी -- मैं प्रेम की एक झील हूँ , फिर ये ज्ञान ---? ओह ---आज समझ पाया -- क्यों कहते थे भगवान ( ओशो ) कि भीतर ज्ञान  का दिया जले , तो बाहर प्रकट होगा ही  प्रेम का नूर - तभी तो तुम हो न कोहेनूर , या  प्रेम की झील या ज्ञान की झील ?                                          17 अगस्त 13 श...

संस्कृत कविता

हे देवी ! सौन्दर्य अधिष्ठात्री ,    मम ह्रदयं त्वं , मम ह्रदयं त्वं, त्वं संग वार्तालाप करोमि ,   जीवन प्रफ्फुलित , जीवन प्रफ्फुलित, त्वं संग भ्रमणं गच्छामि ,     ह्रदयं उल्लसित, ह्रदयं उल्लसित  

तुम्हारे मेरे दरमियाँ,

नहीं , मुझे बर्दाश्त नही कोई भी - तुम्हारे मेरे दरमियाँ ,-- कोई भी ,     तभी तो भटकता फिर रहा हूँ मैं -- तुम्हारे  और मेरे दरमियाँ- कभी तुम तक - कभी  खुद तक ,      पर क्या करूं - क्या कहूँ तुमसे , तुम्ही तो ले आती हो इन सब को - तुम्हारे मेरे दरमियाँ, तुम्हारे साथ ये न जाने कौन कौन आ जाते हैं - तुम्हारे मेरे दरमियाँ,      पर तुम भी क्या करो ,तुम कहती तो हो खुद ब खुद ,  तुम प्रेम की एक झील हो या प्रेम का एक झरना ,          तो ये सब तो होता रहेगा ,   और और और भी आते रहेंगे,  न जाने कौन कौन - तुम्हारे मेरे दरमियाँ,  चलो फिर मैं भी एक प्रेम का सागर बन जाता हूँ , जंहा आकर सब समा जाएँ ,  खो दें अपना अस्तित्व -- तुम्हारे मेरे दरमियाँ,                                      ११  अगस्त २०१३