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जून, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये इन्तहा थी

मैं था - मेरा जूनून था - और था - इश्के रूहानी , तू कंहाँ था - कंहाँ तेरी फ़िक्र - कंहाँ थी तेरी कहानी , फिर तब - क्यों तेरी तब्बसुम - एक आगोश में बदली , बस सिर्फ़ तू था -- तेरी फिकर- और बस तेरी कहानी , मुस्कराहटें - और सरगोश्याँ - खामोशियाँ ये तो पहचानी , न पहचानी तो मेरी अक्ल- फरके मज़ाजो इश्के रूहानी , न तू था - न मैं था - था तो बस एक वजूद ---------- ये इन्तहा थी - या इश्क था - या थी बस एक हैरानी .

मेरी शायरी

कभी तुम मेरी मोहब्बत को आजमा के देखो - कभी तुम मेरे पास आ के देखो - कभी मुझसे दूर जा के देखो - यूं तो देखा होगा तुमने ज़माने में इन्क्लाबों को - कभी मेरी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिला के देखो- तलाशते हैं दरख्त भी साये को धूप में- कभी सीने में तुम मेरे अपना चेहरा छिपा देखो - चलो आओ बाहर निकलो अपने दायरों से - उठाकर अपने हाथो को ------ मुद्दतों जिसे चाहा - वो मंजर शहर का देखो