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फ़रवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
उसके साए से सट के चलते हैं . हम भला , टालने से टलते हैं ? मैं कन्हा उस तरह से रंग बदलता हूँ -- जिस तरह से वो रंग बदलते हैं . तुम ही हो जान हर महफ़िल की हम कन्हा घर से अब निकलते हैं . तुम बनो रंग - तुम बनो सुगंध --- हम तो आंसुओ में ढलते हैं . है ये कितना दूर का सफ़र यारों लडखडाते पांव कंहा संभलते हैं . हो रहा हूँ जिस तरह मैं बर्बाद देखने वाले तो इससे भी जलते हैं
या रब मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता एक ही शख्स था इस जहाँ में क्या ? ताकता रहता हूँ उस मकां की तरफ कोई नहीं रहता है उस मकाँ में क्या ? मेरी हर बात बेअसर ही रही कोई नुक्स है मेरे बयाँ में क्या ? बोलते नहीं क्यों तुम मुझसे जख्म ही दोगे उपहार में क्या ? क्या कहूँ - क्या लिखूँ - क्या करूँ कोई हरकत नहीं आती तेरी जुबाँ पे क्या?