हर बार जब ऑफिस में कोई मुझसे छुट्टी मांगता है, तो वह हिचकिचाता और दोषी महसूस करता है। मुझे समझ नहीं आता क्यों, क्योंकि मैंने आज तक किसी को छुट्टी देने से मना नहीं किया। मुझे ऐसा करने का कोई कारण नज़र नहीं आता! और भी हैरानी की बात यह है कि लगभग हमेशा यह अनुरोध इस बात के साथ होता है कि, छुट्टी पर जाने से पहले मैं कुछ और कहानियाँ लिखूँगा/लिखूँगी।
हम न सिर्फ़ अपनी छुट्टियों को लेकर दोषी महसूस करते हैं, बल्कि दूसरों की छुट्टियों को लेकर भी नाराज़ होते हैं। जैसे ही कोई बड़ा नेता या नौकरशाह छुट्टी पर जाता है, हम यह सिसकियाँ सुनने लगते हैं कि देश कितनी मुश्किल में है और हमारे नेता बस छुट्टियाँ मना सकते हैं (वह भी शायद सरकारी खजाने से)! जैसे ही कोई बॉलीवुड स्टार विदेश जाता है, हम यह अफवाह सुनने लगते हैं कि उसके साथ कौन गया है और वह लौटते हीअपने वर्तमान साथी से ब्रेकअप की घोषणा ज़रूर कर देगा!
मस्ती हमारी व्यवस्था में किसी तरह रची-बसी नहीं है, न ही इसे हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में कोई ख़ास महत्व दिया जाता है। कर्तव्य और ज़िम्मेदारी हर चीज़ से ऊपर हैं।
आनंद एक ऐसी अति है जिसके बिना हमें जीना सिखाया जाता है। हमारे महाकाव्य कर्तव्य के गुणों का बखान करते हैं। सभी पात्र कठिनाइयों से गुज़रते हैं और उन्हें कभी मौज-मस्ती करते नहीं दिखाया जाता, मानो महानता को उतार-चढ़ाव का सामना करना ही पड़ता है! कोई भी टीवी सीरियल देख लीजिए। हर एक में बड़े-बुज़ुर्ग उन युवाओं पर नाराज़ होते हैं जो परिवार से बाहर खाना खाने, फ़िल्म देखने या छुट्टी पर जाने की कोशिश करते हैं। ऐसा तो कभी नहीं होता हमारा यहाँ, यही तो हमेशा की बात है। पूरी कोशिश यही लगती है कि कोई भी तयशुदा ढाँचों और कर्तव्य से न हटे, थोड़ी देर के लिए भी नहीं, कहीं ऐसा न हो कि वे हमेशा के लिए बहक जाएँ!
लेख: आनंद और कर्तव्य के बीच भारतीय समाज की द्वंद्वात्मकता
भारतीय समाज की जड़ों में गहराई से देखने पर यह साफ़ दिखाई देता है कि मस्ती और आनंद हमारे सामाजिक ताने-बाने में बहुत अधिक जगह नहीं पाते। हमारी परंपराएँ, हमारी शिक्षा व्यवस्था और हमारे सांस्कृतिक मूल्य हमें हमेशा कर्तव्य और ज़िम्मेदारी की ओर मोड़ते हैं। जीवन का उद्देश्य आनंद लेना नहीं, बल्कि दायित्व निभाना माना गया है।
हमारे महाकाव्य, जैसे रामायण और महाभारत, इसी विचारधारा के वाहक हैं। इनमें नायक वे हैं जो अपने सुख-दुख से परे, केवल कर्तव्य का पालन करते हैं। इनकी कथाओं में संघर्ष है, त्याग है, लेकिन जीवन के हल्के पलों की कोई झलक नहीं। मानो महानता का पर्याय केवल कठिनाइयों से जूझना ही हो!
आज के दौर में भी, जब समाज आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है, यह सोच कहीं न कहीं बनी हुई है। टीवी सीरियल्स और फिल्मों में भी हम देखते हैं कि बड़े-बुज़ुर्ग युवाओं पर नाराज़ होते हैं यदि वे परिवार से बाहर घूमने, फ़िल्म देखने या छुट्टियाँ मनाने का विचार करें। मानो मनोरंजन या आनंद लेना एक ‘असंस्कारी’ काम हो।
दरअसल, हमारे यहाँ यह धारणा गहरी है कि अगर कोई व्यक्ति तयशुदा सामाजिक ढाँचे से थोड़ा भी बाहर निकला, तो वह भटक जाएगा। इसलिए उसे बचपन से ही सिखाया जाता है कि अपने कर्तव्य से ज़रा भी विचलित न हो। परिणामस्वरूप, आनंद और मस्ती को एक तरह की ‘अति’ मान लिया गया है—कुछ ऐसा जो ज़रूरत से ज़्यादा है, और शायद खतरनाक भी।
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या जीवन केवल कर्तव्य निभाने के लिए है? क्या आनंद को त्याग देना ही महानता का मार्ग है? आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि खुशी और विश्राम केवल विलासिता नहीं, बल्कि मानसिक और शारीरिक संतुलन के लिए आवश्यक हैं। जब समाज आनंद को जगह नहीं देता, तो वह धीरे-धीरे कठोर और असंवेदनशील हो जाता है।
इसलिए अब समय आ गया है कि हम अपने सांस्कृतिक दृष्टिकोण में थोड़ा बदलाव लाएँ। कर्तव्य और ज़िम्मेदारी महत्वपूर्ण हैं, परंतु इनके साथ मस्ती, सृजनशीलता और आत्मसंतोष को भी समान महत्व मिलना चाहिए। जब तक हम अपने जीवन में आनंद के लिए स्थान नहीं बनाएँगे, तब तक न तो समाज पूर्ण होगा, न ही व्यक्ति।
भारतीय संस्कृति को अपनी गहराई में आनंद की भावना को पुनः खोजने की आवश्यकता है—क्योंकि जीवन केवल दायित्वों का नाम नहीं, बल्कि जीने की कला का भी नाम है।
सालों पहले, ऑस्ट्रेलिया की अपनी यात्रा के दौरान, मैं एक शुक्रवार दोपहर एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के कार्यालय गया, तो पाया कि वहाँ उस संपादक को छोड़कर कोई नहीं था, जिनसे मेरी मुलाक़ात थी। मेरा आश्चर्य देखकर, वह मुस्कुराई और बोली, "शुक्रवार दोपहर!"
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